“कहा जाता है कि कड़ी मेहनत और लगन के द्वारा निश्चित तौर पर सफलता मिलती है और असंभव को संभव बनाया जा सकता है। यदि मन में कुछ भी ठान लिया जाय तो उसे पाने से कोई नहीं रोक सकता। यह कहानी उस नवयुवक की है जिसने अपने बलबूते और कड़ी मेहनत के द्वारा झुग्गी बस्ती से निकल कर आज इसरो के साइंटिस्ट बने है।”
मुंबई की झुग्गी बस्ती से निकलकर बने वैज्ञानिक प्रथमेश हिरवे ( Prathamesh Hirve ) की कठिन परिश्रम की कहानी।
यह नवयुवक कोई और नहीं बल्कि प्रथमेश हिरवे ( Prathamesh Hirve ) हैं। जो मुंबई में पवई के फ़िल्टर पाड़ा स्लम एरिया में रहते थे। वहां प्रथमेश 10 X 10 की झोपड़ी मैं रहते थे, जहां अक्सर उनके दोस्त और पड़ोसी उन्हें हमेशा पढ़ाई करते हुए ही दिखाई देते थे। प्रथमेश बताते हैं कि उनके जीवन का सपना इंजीनियर बनने का था।
फ़िल्टर पाड़ा मुंबई की ऐसी जगह है जहां की आबादी काफी घनी है और वहा काफी बड़ी तादात में झुग्गी झोपड़ियां है। वहा पढ़ना तो दूर सुकून से कोई कोई आराम भी नहीं कर सकता है। ऐसी परेशानी भरी जिंदगी से जूझते हुए आज ऐसे मुकाम तक पहुंचना वाकई में कबीले तारीफ है।
प्रथमेश का इंजीनियर बनने का सपना।
MID DAY की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रथमेश को हमेशा पढ़ाई करते हुए देखने के बाद अक्सर उनसे कहा जाता था कि अपनी जिंदगी में इतना पढ़ लिख कर क्या मुकाम हासिल करोगे….? परंतु प्रथमेश इन सब बातों को अनदेखा कर अपने लक्ष्य की ओर न भटकते हुए आगे बढ़ते गए। उन्होंने अपने आत्मविश्वास को बिलकुल भी नहीं डिगने दिया।
वह बताते हैं कि एक टेस्ट के लिए है अपने माता-पिता के साथ साउथ मुंबई गए थे। जहां एक कैरियर काउंसलर ने उन्हें आर्ट्स में कैरियर बनाने की सलाह दी क्योंकि प्रथमेश इस काबिल नहीं है कि वह विज्ञान जैसे कठिन विषयों को आसानी से समझ और पढ़ सकें। परन्तु प्रथमेश के चचेरे भाई को कैरियर बनाने के लिए काउंसलर ने कहा की वह विज्ञान विषय पढ़ने के काबिल है लेकिन प्रथमेश नहीं।
इस बात को सुनकर प्रथमेश बेहद दुखी हुए परंतु उन्होंने हार नहीं मानी, और अपने माता पिता को इस बात के लिए मना लिया कि वह कितनी भी बड़ी से बड़ी मुश्किल आ जाए पर वे हर हाल में इंजीनियर बन कर ही दम लेंगे।
भाषा समझने में हुई परेशानी।
प्रथमेश के इस निर्णय से उनके माता-पिता उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए राजी हो गए। यह प्रथमेश के लिए सुनहरा अवसर था। प्रथमेश ने दसवीं तक की पढ़ाई मराठी भाषा में की थी, उसके बाद वर्ष 2007 में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के लिए भागुभाई मफतलाल पॉलिटेक्निक से डिप्लोमा करने का मौका मिला। लेकिन उनकी सबसे बड़ी परेशानी भाषा को ना समझ पाने की थी क्योकि उनकी शुरुवाती सभी पढ़ाई मराठी भाषा में हुई थी। इसलिए उनके डिप्लोमा के शुरुवाती 2 साल काफी मुश्किलो भरे थे।
उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की भाषा को समझने में काफी दिक्कत आ रही थी। इन्ही कारणों की वजह से वह क्लास में सबसे पीछे बैठते थे। वह कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे की वे क्या करे, परन्तु उन्हें अपने आप को टूटने नहीं देना था।
आखिरकार सेकंड ईयर में उन्होंने हिम्मत कर के अपने प्रोफेसर को बताया की उन्हें भाषा को समझने में काफी दिक्क्त आ रही है। उनके प्रोफेसर ने उनकी परेशानी को समझते हुए कहा की वह डिक्शनरी का प्रयोग करते हुए भाषा को समझे और लगातार प्रयास करते रहे और कुछ भी परेशानी पर उनसे मदद लेते रहे।
आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
आखिर प्रथमेश ने अपनी मेहनत से भागु भाई मफतलाल पॉलिटेक्निक से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग डिप्लोमा हासिल किया। इस दौरान उनको L & T कंपनी और टाटा पावर में ट्रेनिंग के तौर पर उनकी नियुक्ति हो गई। इस कंपनी में काम करने वाले सभी सीनियर्स ने उनको नौकरी करने की बजाय आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
प्रथमेश ने इस बात से प्रेरित होकर वह अपने माता-पिता के साथ नवी मुंबई गए और वहां श्रीमती इंदिरा गांधी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से बीटेक करने के लिए आवेदन दिया।
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यूपीएससी का सपना टूट गया।
इसी बीच उन्होंने अपना ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित किया और वर्ष 2014 में एक अच्छे मार्क्स से अपनी बीटेक की पढ़ाई पूरी की। बीटेक करने के बाद वह कई परेशानियों से जूझ रहे थे जिसमें से आर्थिक परेशानी मुख्य थी। इस परेशानियों को कम करने के लिए वे प्राइवेट नौकरी करने का विचार कर रहे थे।
वे असमंज में थे कि वह सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करें या फिर प्राइवेट नौकरी करें, अपने लक्ष्य को याद करते हुए उन्होंने UPSC की परीक्षा दी। परंतु वे इस परीक्षा में असफल रहे और उन्हें ये लगा कि वे इस काबिल नहीं है कि UPSC की परीक्षा पास कर सके।
तब उन्होंने इसके बाद अपने दूसरे लक्ष्य इसरो की तरफ मेहनत करना शुरू किया। जल्द ही उन्होंने ISRO के लिए आवेदन किया परन्तु किस्मत को अभी इनको थोड़ा इन्तजार और करवाना था।
इसलिए ISRO में इनको सफलता हाथ नहीं लगी। परन्तु प्रथमेश हिम्मत कहा हारने वाले थे। उन्होंने इसरो के लिए अपनी मेहनत चालू रखी। और प्राइवेट नौकरी के साथ साथ इसरो के लिए पढ़ाई करते रहे।
16,000 उम्मीदवारों सें आया नंबर।
पिछले साल मई में हुई परीक्षा में उन्होंने आवेदन किया। उस समय ISRO मैं 16,000 लोगों ने वैज्ञानिक बनने के लिए आवेदन फॉर्म भरा। जिसमें से मात्र 9 लोगों का चयन होना था। 14 नवंबर को इसरो की परीक्षा का रिजल्ट आया, और प्रथमेश उन मात्र 9 लोगों में से एक खुश नसीब थे जिनका चयन ISRO में हुआ। उनके परिवार वालो का ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उनके ISRO में सलेक्शन होने पर उनको जानने वालो को प्रथमेश पर गर्व हो रह था।
उनकी पोस्टिंग चंडीगढ़ में एक इलेक्ट्रिकल साइंटिस्ट के तौर पर हुआ है। प्रथमेश का कहना है कि 10 साल तक अपनी कड़ी मेहनत और लगन का नतीजा है कि वे आज ISRO के साइंटिस्ट बने|
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ISRO भारत की एक ऐसी प्रसिद्ध संस्थान है जहां पहुंचना विद्यार्थियों का एक सपना होता है और इस सपने को पूरा करने वाले 9 लोगों में से एक प्रथमेश हिरवे हैं। जो भारत के मुंबई में झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले आज वे इस मुकाम पर हैं कि वे अपने माता-पिता के साथ एक बेहतरीन जिंदगी जी रहे हैं।
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